Thursday, August 4, 2011

अधूरे ख्वाब

मेरे हर एक सपने को जैसे किसी की नज़र लग जाती है,
मैं उन्हें संजोती हूँ बार बार , पर आखिरकार मेरे हाथ में सिर्फ हार ही आती है!

सपने बुनते बुनते मैं भूल जाती हूँ की वो सपने है,
हकीकत तब जान पाती हूँ, जब कोई मेरे टूटे सपनो से खेलता है,
जब उनके रंगो को मेरे मन के आंगन में बिखेरता है!

मैं सिर्फ उन रंगो में अतीत की परछाइयां तलाश करती हूँ,
अपने आप से ही अक्सर सवाल जवाब करती हूँ , कि क्यूँ'
मैं एक सपना टूटने के बाद फिर से ख्वाब बुनती हूँ,
जबकि मैं जानती हूँ कि ये ख्वाब भी शायद टूट जायेगा,
और मुझे फिर से बहुत रुलाएगा, तड्पाएगा

लेकिन अब मैं कोई ख्वाब नहीं देखना चाहती !
फिर से बिखरे रंगो को नहीं बटोरना चाहती,
नहीं देना चाहती किसी को अधिकार कि वो मेरे ख्वाबो से खेल सके,
मुझे अतीत के अन्धकार में धकेल सके,
जहाँ फिर से मैं अपने टूटे ख्वाबो के साथ अकेली हो जाऊं,
जहाँ से मुझे आगे अँधेरा ही अँधेरा नज़र आये
और मैं फिर से उन्ही अनजानी राहो में खो जाऊं!

नहीं देखना चाहती मैं कोई ख्वाब , नहीं देखना चाहती...
अधूरे ख्वाब