Tuesday, September 20, 2011

कांच की दीवार

तकदीर मेरे संग बार बार ये कैसा खेल खेलती है,
एक कांच की दीवार बार बार जाने कैसे कैसे आघात झेलती है,

अतीत में खोई हुई एक परछाई उभर आई थी,
मैंने कई रंगों से उसकी तस्वीर सजाई थी,
कुछ पलों में ही अनगिनत ख्वाब संजो दिए थे,
और सोचा जिंदगी में ख़ुशी हकीक़त बन आयी थी,
फिर पल पल सिर्फ ख्वाब थे, कदम कदम पर मुस्कराहट  होटों पर दस्तक देने लगी थी,
आँखों में चमक बिखेरने लगी थी, आत्मविश्वास की नय्या खेने लगी थी,
चारो तरफ सिर्फ फूलों के गलियारे थे, परछाई के संग संग चाँद और सितारे थे,
सारे के सारे अधिकार उन पलों में परछाई पर हमारे थे,
दुनिया में अपनी बड़ी खुशनसीबी का एहसास होता था,
आँखों के सामने अपनी नवीन कल्पनाओं का आकाश होता था,
परछाई की हकीक़त में मोजूदगी का एहसास होता था,
पर वर्तमान फिर से अतीत बन गया,
उभर आयी परछाई फिर से खो गई,
तकदीर फिर से नया खेल खेल गई,
एक बार फिर से कांच की दीवार बहुत बड़ा आघात झेल गई,

पर इस बार कांच की दीवार चूर चूर हो गई,
मैं उस चूरे से खेलने लगी पर नहीं जानती थी की कांच 
के टुकडो से खेला नहीं जाता,अब मैं लहुलुहान हूँ,
उन टुकड़ों को समेटने की जिद्द है लेकिन मैं लहुलुहान हूँ,
टुकड़ों बिखर चुके है और मैं लहुलुहान हूँ.




9 comments:

  1. कल 23/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  2. पर इस बार कांच की दीवार चूर चूर हो गयी |
    बहुत सुन्दर |
    बधाई
    आशा

    ReplyDelete
  3. bahut achchi lagi Kalpana tumhari yah rachna.bahut sundar.god bless you.

    ReplyDelete
  4. वाह ...बहुत बढि़या ।

    ReplyDelete
  5. उफ़ बेहद मार्मिक्।

    ReplyDelete
  6. dil ko chu lene wali rachna ...me kaanch ke tukdo se khelti hu bahut sundar

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सुन्दर कल्पना है ...

    ReplyDelete
  8. Aap sabhi ka Bahut Bahut dhanyawaad.

    ReplyDelete