इस युग का अदि अंत नहीं मैं जानती हूँ,
क्यूँ शुन्य है अनंत नहीं मैं जानती हूँ
मैं जानती हूँ बस इतनी सी बात
कि आम के एक पेड़ पर बैठा है पंछी
एक गिद्ध है आकाश में उस पर लगाये घात
क्यूँ ऐसी नीयत हो गई है इंसान कि भी आज
मैं सोचती हूँ अक्सर जो था कभी देवता
वो बन गया क्यूँ बाज़
कुछ तो फर्क है मनुष्य तुझमें और बाज़ में
तू क्यूँ अंतर समझा नहीं सकता कल और आज में
तेरा अदि अंत के दलदल में इतना क्यों धंस गया है
तू माया के इस जाल में क्यों जटिलता से फंस गया है
तेरे कण कण से यही आवाज़ आती है मुझे
इस नवयुग कि आंधी में खो गया जाने कहाँ मेरा कल गया है,
आज मेरी नस नस का लहू समय कि चिंगारियों से जल गया है!