Sunday, October 9, 2011

जाने क्यूँ

कभी कभी मैं बहुत अकेली हो जाती हूँ,
ना जाने कहाँ किस भंवर में तनहाइयों के साथ
अपने को भी तनहा पाती हूँ!
और तब मैं सोचती हूँ की तनहाइयाँ आखिर मुझे
कब तक सता पाएंगी?
कभी ना कभी शायद ये भी मुझसे
तुम्हारी तरह ही रूठ जाएँगी!
बस तुम्हारे बारे में ही मैं क्या कहूं
मुझसे तो सभी रूठ जाते है
कई पल कई लम्हे जो संजोती हूँ मैं
एक कतार में मुझसे छूट जाते है,
जिसे भी अपना कहती हूँ वो मुझे
बेगाना कर देता है!
मेरी हकीक़त भरी जिंदगी के जज्बातों को
एक अफसाना कर देता है!
शायद तुम सही हो, लेकिन मुझे इस कदर
फिर से अफसाना ना बनाओ
मेरी जज्बातों की महफ़िल को,
एक जलता हुआ शामियाना ना बनाओ!
शायद मैं गलत हूँ लेकिन, तुम्हारी नज़रों में
मुझे जिदगी का एक कोरा पन्ना ना बनाओ,
मैं हसरतों भरी धड़कन हूँ, मुझे तुम्हारे जीवन की अधूरी
तमन्ना ना बनाओ,
अधूरी तमन्ना ना बनाओ.............


6 comments:

  1. बहुत खूब कल्पना जी।
    --------
    कल 11/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. बहुत गहरे अहसास उकेरे हैं।

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  3. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना.....

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  4. बेहतरीन शब्‍दों का संगम ।

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  5. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना.....

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